Sunday, 16 August 2020

Review of book hriday ke kisi kone se

||  हृदय के किसी कोने से पुस्तक विश्लेषण  || 




हृदय के किसी कोने से पुस्तक को पढ़कर वास्तव में हृदय में एक झंकार उत्पन्न हो गई। यकीन मानिए स्कूल में एनसीईआरटी की किताबों को पढ़ने के बाद के बाद यह पहली ऐसी पुस्तक है जिसे मैंने इतनी शिद्दत और प्रेम से पढ़ा। इतनी उत्सुकता से पढ़ा कि मानों मैं एक-एक शब्द को अपने मन और मस्तिष्क में ताउम्र संग्रहित कर लेना चाहता हूँ। अब भला होता भी क्यों ना जो इतनी बेसब्री से इस पुस्तक का इंतज़ार था। 


विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभा की धनी शिवानी दीदी की पहली काव्य संग्रह अपने आप में कविताओं का एक अनमोल पिटारा है। इस पुस्तक में लगभग 55 कविताएँ हैं। कविताओं में कहीं प्रकृति से ओतप्रोत होकर काव्यात्मा का उद्वेलित उद्गार दिखता है तो कहीं मानवीय जीवन को कर्म पथ की तरफ़ इशारा करते हुए एक संदेश भी मिलता हैं। कहीं माँ की ममता झलकती है तो कहीं पिता का समर्पण। स्त्री जीवन के पाखंडों पर भी प्रहार किया गया है और स्त्री को संदेश भी दिया गया है। हालांकि ज्यादातर कविताएँ हमें प्रकृति से जोड़ती हैं। आसपास की चीजों को देखकर कविताएँ लिखी गई हैं, अमूमन जिन्हें हम अक्सर देखते हैं लेकिन उस नजरिए से नहीं देख पाते हैं जिस नजरिए से एक कवि देखता देखता है। 


एक चीज़ जो मुझे व्यक्तिगत रुप से इस पुस्तक में खटकती है वह है शिवानी दीदी का परिचय।पुस्तक लेखक के व्यक्तित्व और साहित्य नियोजन की परिचायक होती है। चूंकि मैं शिवानी दीदी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, इसलिए यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि पुस्तक में लिखी कविताओं से कहीं बहुत ऊपर उनकी कविताओं का स्तर होता है।हालांकि कविताएँ इनके प्रारंभिक अवस्था की हैं इस लिहाजे से इन्हें कमतर नहीं आंका जा सकता है। 


पूर्ण विश्वास के साथ मैं यह कह सकता हूँ कि पाठक का पठनोपरांत अपने आसपास के चीज़ों के अवलोकन का नज़रिया बदल जाएगा। जिस तरीके से अपने आसपास की चीजों का शब्दचित्र एक सुनियोजित,सिलसिलेवार और वास्तविक रूप में उकेरा गया है उससे कविताएँ हमें अपने दृश्य की तरफ़ खींच कर ले जाती हैं और यथार्थ का अनुभव कराती हैं। 

अंततः आप सभी से मेरी यही आग्रह है कि इस पुस्तक को एक बार अवश्य पढ़ें।


विश्लेषक : अभिषेक तिवारी

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हृदय के किसी कोने से
Written by SHIVANI TRIPATHI

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Saturday, 13 June 2020

|| डॉ साहिबा ||





डॉक्टर साहिबा : (वेटर से) दो कोल्ड कॉफी और 🤨....

मैं : नहीं नहीं 😒......दो नहीं एक काॅफी और एक चाय।🤗

डॉक्टर साहिबा :  आप भी ना🙄.....ज़रा सा भी बदल नहीं सकते।🧐 मैं काॅफी पियूंगी और आप चाय।🤨🤨

मैं: क्या करें मैडम चाय से ना अपना एक अजीब रिश्ता है।🥰 आज भी गोरखपुर की चाय मुझे😍.....

डॉक्टर साहिबा: अरे बस भी करिए।😏 हजारों बार मैं सुन चुकी हूँ।😴 गोरखपुर की चाय.....गोरखपुर की चाय.......😑😑 न जाने क्या खास है आपके इस गोरखपुरिया चाय में।🙄🙄

मैं: अब पता नहीं खास है भी या नहीं।😌 मगर वह किसी पहली मोहब्बत की तरह है। 🥰 शायद उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता।🥺 वह शहर और वहां से मोहब्बत।😘

डॉक्टर साहिबा: कब तक पुरानी चीजों में उलझे रहेंगे।😕 अब आप एक नये शहर में हैं। इस शहर के एनवायरनमेंट के हिसाब से रहिए।🤠🤠

मैं: मगर वो तहज़ीब जो मेरी बुनियाद में है उसका क्या करें डॉक्टर जी😎 वह कोई लिबास नहीं है जिसे शहर-दर-शहर मौसम-दर-मौसम बदल दिया जाए। 😏😏

डॉक्टर साहिबा: मगर यदि हम पुराने ख़्यालात में खुशियां ढूंढते रहे तो फिर नई आबोहवा को पहचान  कैसे पाएंगे।🧐🧐 इन्हें भी कभी यादों की सुर्खियों में जीने का मौका मिलना चाहिए।🤓

मैं: अरे वाह..!! आजकल आप बड़ी शायराना होती जा रही हैं।😋😋

डॉक्टर साहिबा: हां.....यह सब कुछ आपके साथ रहते-रहते।😜😜

मैं: ओ...हो....क्या बात। आप भी ढ़लने लगी हैं।😌😌

डॉक्टर साहिबा: अब ढ़लें भी क्यों ना। आपकी बातों में जो खींचती चली जाती हूँ।🤗🤗

मैं: हां....बस खींचकर इतना करीब लाना है कि हमारे दरमियां फासलों को रत्ती भर भी जगह ना मिल पाए।😚😚

डॉक्टर साहिबा: अच्छा जी.....आपकी शायरी खत्म हो गई हो तो मैं चलती हूँ मुझे देर हो रही है।🤪🤪

मैं: ठीक है चलिए....😣😣.

डॉक्टर साहिबा: (आंखों में आंखें डालकर) 😳और हां....इस शहर की आबोहवा में कभी रंगीन मत हो जाइएगा।🤨🤨 आपके कुल्हड़ वाली चाय के अंदाज की तो मैं दीवानी हूँ।❤❤😘



🖋🖋 अभिषेक तन्हा
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Tuesday, 19 May 2020

|| शेर ||





दुनिया से दूर कहीं ख़ुदा से इश़्क मांगना चाहता हूंँ
फ़क़ीर से मैं हथेली पर इश्क़ का लकीर चाहता हूंँ।

ख़यालात की तिजोरी से दो अनकहे शब्द निकाल
शायराना अंदाज में तुझसे इश्क़ है कहना चाहता हूंँ।

किसी मोहब्बत वाले ग़ज़ल के दो चार शेर पढ़कर
अकेले कहीं बैठकर तेरा ज़िक्र करना चाहता हूंँ।

ज़ालिम ज़माने में मुकम्मल हो ना हो कोई ग़म नहीं
जन्नत में भी प्रिये तेरी रूह से इश्क़ करना चाहता हूंँ।

यहाँ कुछ जलने वाले मोहब्बत की शायरी बिखेर देंगे
स्याही का रंग बदलकर मैं इश्क़ लिखना चाहता हूंँ ।

 🖋🖋 अभिषेक तन्हा
Abhishek Tiwari


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Monday, 18 May 2020

|| लेखन की आग ||

                 
          आप गरीब हों अमीर हों कामकाजी हों या फिर निठल्ले हों जैसी भी हों जिन भी परिस्थितियों में हों आपको भूख लगेगी। भूख की टीस मिटाने के लिए सभी कुछ ना कुछ जरूर खाएंगे। आप आराम से खाएं, जल्दीबाजी में खाएं ,जैसे भी खाएंगे, जो भी खाएंगे मगर आप खाएंगे जरूर । रईस हैं तो कुर्सी मेज पर बैठकर खाएंगे , गरीब हैं तो एक हाथ में रोटी दूसरे हाथ में मिर्ची लेकर खाएंगे, कुल मिलाकर भूख है तो खाना ही पड़ेगा।

ठीक इसी तरह यदि आपके अंदर लेखन की आग दहकती है तो आप लिखेंगे जरूर। परिस्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल हों जैसी भी हों यदि लेखन की चिंगारी है तो वह इंसान लिखेगा ।

एक लेखक खुशियों में भी दो पल के लिए खुद को संभाल कर गंभीरता से खुशियों का चित्रण करता है। यदि गम में हो, दु:खों का पहाड़ भी क्यों न टूट जाए उन विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को सजग करके एक गहरी सांस लेता है और वहां उस सांस की उष्मा में उसकी लेखन पनपती है और बेबसी से बाहर निकल आती है।

बस्ती में आग भी लग जाए तो एक लेखक अफरा-तफरी के बीच दो पल के लिए ठहर जाता है ।आग की लपटें, भागते चीखते-चिल्लाते लोगों को, आग की गरमाहट को महसूस करता है, विध्वंसक दृश्य को देखता है । फिर कभी कहीं किसी कहानी में अपने अनुभवों को संजोता है।

धरती पर प्रलय आ जाए, सब कुछ नष्ट होने के कगार पर हो फिर भी एक लेखक कहीं कोने में दुबक कर लिखता मिलेगा। अधूरी कहानी में यदि उसकी मृत्यु हो जाए यदि उसका मृत शरीर पिघल जाए फिर भी प्रलय के कहानी की आकृतियां उसकी अस्थियों पर दिखेंगी।

यदि एक कवि की काव्यात्मा में काव्याग्नि दहकती है, तो कविता जरूर लिखेगा। मसलन उसकी कलम तोड़ दी जाए, पलटकर कविता पर स्याही क्यों ना बिखेर दी जाए, फिर भी स्याही का रंग बदल कर कविता लिखेगा लेकिन लिखेगा जरूर।
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🖋 अभिषेक तन्हा
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Thursday, 7 May 2020

व्यंग्य विज्ञान



                  ||  व्यंग्य विज्ञान ||

                 व्यंग्य साहित्य की एक वह विधा है जिसमें उपहास, मज़ाक और इसी क्रम में आलोचना का प्रभाव दिखता है।व्यंग्य का जन्म, समसामयिक विद्रूपताओं से पनपे असंतोष से होता है। एक व्यंग्यकार अपने आसपास की परिस्थितियों का आकलन अलग नजरिए से करता है । कभी व्यंग्यकार जीवन की विसंगतियों को उजागर करता है तो कभी सामाजिक पाखंड को सामने रखने की कोशिश करता है । व्यंग्य के माध्यम से व्यंग्यकार पाठक को सचेत भी करता है । व्यंग में हास्य भी होता है। व्यंग्य की मारक क्षमता काव्य, कहानी एवं अन्य विधाओं से कहीं ज्यादा होता है। इस विधा में विषय बिंदु का चित्रण सीधे-सीधे न होकर घुमावदार तरीके से किया जाता है । व्यंग लेखन में लचकदार और रोचक भाषा शैली की आवश्यकता होती है। व्यंग्य वही कर सकता है जो मानसिक रूप से तीक्ष्ण हो।

हिंदी व्यंग्य का आरंभ, संत-साहित्य की शुरुआत से माना जा सकता है। कबीर व्यंग्य के आदि-प्रणेता हैं। उन्होंने मध्यकाल की सामाजिक विसंगतियों पर व्यंग्यपूर्ण शैली में प्रहार किया है। जाति-भेद, हिंदू-मुस्लिम के धर्माडंबर, गरीबी-अमीरी, रूढ़िवादिता आदि-आदि पर कबीर के व्यंग्य बड़े मारक हैं।
व्यंग्य की परिभाषा और इतिहास में न जाते हुए व्यंग्य लेखन की बात करते हैं।

मेरे अपने अनुभवों के आधार पर मैं कुछ महत्वपूर्ण तत्वों का उल्लेख करना चाहूंगा :-
1. व्यंग्य की शैली
2. व्यंग्य में रोचकता
3. व्यंग्य में रुझान
4. व्यंग्य बाण
5. व्यंग्य में मुहावरा
6. व्यंग्य का केंद्र
7. आरोह अवरोह अलंकार आवृत्ति और प्रकाश
8. मौलिकता
9. सत्यता
10. रचना कौशल

गद्य में व्याकरण को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। काव्य कवि के विचारों कुछ नियमों और तुक पर आधारित होता है । मगर व्यंग्य में पाठक पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए और व्यंग्य की शैली पर भी विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए ।

तो आइए अब व्यंग्य के कुछ पहलुओं पर चर्चा करें :-

व्यंग बाण

व्यंग बाण कुछ ऐसे शब्द या कुछ ऐसे वाक्य होते हैं  जो विषय वस्तु पर बार-बार आघात करते हैं । व्यंग्य बाण में मुहावरे भी हो सकते हैं। व्यंग्य बाण की तीक्ष्णता पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए । व्यंग्य में कभी-कभार भाषा शैली ही व्यंग्य बाण बन जाती है। व्यंग्य बाण ऐसा होना चाहिए जो पाठक की मनोदशा को झकझोर कर रख दे।

व्यंग्य जाल

व्यंग्य में व्यंग्य जाल का होना अति आवश्यक है जिससे कि व्यंग्य में रोचकता बनी रहे l सवाल है कि व्यंग्य जाल कैसे बनाया जाए ? तो आपने मकड़ी के जाल को देखा होगा जैसे कुछ गोलाकार कुछ खड़े तारों से बना होता है और मकड़ी केंद्र में होती है ठीक वैसे ही विषय वस्तु को केंद्र में रखकर कुछ गोलाकार भूमिका बनाएं और फिर सभी दिशाओं से व्यंग्य बांण का प्रहार केंद्र पर करें । यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है ।
व्यंग्य जाल में पाठक को इस तरह से फसाया जाना चाहिए कि उसकी सोच व्यंग्य के केंद्र की तरफ खिंचती चली जाए।  फिर आप पाठक की मनोवृत्ति पर आघात कीजिए और तब तक करते रहिए जब तक उसकी मानसिक गतिविधियां तीव्र ना हो जाएं।
यदि आप हास्य व्यंग्य लिखते हैं तो वहां इसका खास ध्यान रखा जाना चाहिए । प्रहार आप तब तक कीजिए जब तक श्रोता या पाठक की मानसिक गतिविधियां सांसारिक गतिविधियों से बिल्कुल अलग न हो जाएं। जब मात्र व्यंग्य बाण के प्रहार का अनुभव होगा तभी तो पाठक या श्रोता को हंसी आएगी ।


व्यंग्य में नए शब्दों का प्रयोग

व्यंग्य में अक्सर नये शब्दों का प्रयोग किया जाता है । शब्द जिसका पाठक को तनिक भी अंदाजा नहीं होता है । यहां नये शब्दों का यह मतलब नहीं कि आप शब्दों का आविष्कार करने बैठ जायें । जी नहीं नये शब्द से तात्पर्य है वह शब्द जो पढ़ते समय पाठक को अंदाजा ना हो और अचानक से आपके लेख में  आ टपके ।
नया शब्द का बस इतना तात्पर्य है कि पाठक की मनोदशा बदल जाए उस शब्द को पाकर ।

उदाहरण- कवि का अंतर्मन जब छटपटाता है तो उसके काव्यात्मा से नए भाव उभरते हैं ।
यहां छटपटाता व्यंग्य बाण है और काव्यात्मा वह नया शब्द ।


व्यंग्य में मुहावरे का प्रयोग

व्यंग्य में मुहावरे का बहुत बड़ा महत्व होता है कभी- कभार प्रचलित मुहावरे का तो कभी-कभार लेखन कौशल से व्यंग्य के प्रवाह के साथ ही मुहावरे बना दिए जाते हैं ।
मेरे अनुभव की मानें तो व्यंग्य में मुहावरा किसी आस्तीन के सांप की तरह व्यंग्य के ललाट पर कुंडली मारे बैठा होना चाहिए। इस वाक्य में ही आप आस्तीन के सांप को उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं । ऐसा करने से पाठक की रोचकता पर बहुत अच्छा और गहरा असर पड़ता है।


व्यंग्य में  प्रवाह

व्यंग्य में निरंतर प्रवाह का होना अति आवश्यक है । और प्रवाह शब्दों के उचित चयन से होता है। जिस प्रकार हम काव्य में एक निरंतर प्रवाह में शब्दों का चयन करते हैं ठीक उसी प्रकार व्यंग्य में भी एक निश्चित प्रवाह की आवश्यकता होती है। यदि प्रवाह ना हो तो आपकी शैली निरर्थक भी हो सकती है ।


व्यंग्य में लयबद्धता

व्यंग्य शैली का लयबद्ध होना भी जरूरी है। ऐसा ना होने से पाठक निराश हो सकता है। यदि आप किसी व्यंग को लयबद्ध तरीके से लिखते हैं तो व्यंग जितनी बार पढ़ी जाएगी उसकी रोचकता ज्यों की त्यों रहेगी। 


व्यंग्य में अलंकार

व्यंग्य में भी कभी-कभार काव्य की तरह अलंकार की आवश्यकता होती है जो व्यंग्य की शोभा बढ़ा देती है । व्यंग्य में अलंकार के लिए हम किसी बिंदु की व्याख्या कई शब्दों से करते हैं ,जो एक दूसरे से लयबद्ध तरीके से जुड़े होते हैं । किसी विषय  बिन्दु पर खास प्रकाश डालने के लिए एक ही वस्तु को कई शब्दों से परिभाषित करते हैं ।


व्यंग्य की घुमावदार शैली

व्यंग्य में हम अक्सर घुमावदार भाषा का ही प्रयोग करते हैं । और यहां घुमावदार से यह बिल्कुल नहीं समझा जाना चाहिए कि भाषा में क्लिष्टता हो। जहां तक सम्भव हो आप अनावश्यक क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग से बचें । अपने व्यंग्य में आम बोलचाल के शब्दों का भी उचित स्थान पर प्रयोग करते रहें । हास्य व्यंग्य में तो आम बोलचाल के आड़े तिरछे शब्दों का प्रयोग बढ़ चढ़कर होता है। घुमावदार का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि आप ऐसा लिख दें कि पाठक को समझ में ही ना आए । घुमावदार से सिर्फ इतना तात्पर्य है की व्यंग्य की रोचकता बनी रहे।


लेखक की मनोदशा

व्यंग्य लेखन में लेखक की मनोदशा का एक विशेष दिशा में होना भी जरूरी है। यदि आप किसी व्यथा में हों या आप बहुत खुश हों तो आप अपनी भावनाओं को गद्य रूप दे सकते हैं ,आप अपनी भावनाओं को पद्य रूप दे सकते हैं । मगर मेरा अनुभव  कहता है कि व्यंग्य लिखने के लिए एक विस्तृत मनोदशा का होना जरूरी है व्यंग्य लेखन में लेखक के लिए विस्तृत सोच और व्यापक सोच की जरूरत होती है ।


मैं बार-बार पाठक की बात कर रहा हूं तो बता दूं कि व्यंग्य खास तौर पर पाठक को ध्यान में रखकर लिखा जाना चाहिए । व्यंग्य का मकसद होता है पाठक की मनोदशा को बदलना ।

उम्मीद है कि आप व्यंग्य के बारे में समझ गए होंगे, और अब ज्यादा विस्तार ना करते हुए मैं इस लेख को विराम देना चाहूंगा ।
आप सभी पाठकों एवं लेखक बंधुओं से अनुरोध है कि यदि लेख में कोई त्रुटि हो तो उस से मुझे अवगत जरूर कराएं।

संपूर्ण लेख मेरे अनुभव पर आधारित है अतः  गलती होने की संभावनाएं भी है ।
इस लेख का कोई तथ्य यदि किसी अन्य लेख से मिलता-जुलता हो तो उसे महज एक इत्तेफाक समझा जाना चाहिए ।


---------- अभिषेक तन्हा 

Wednesday, 29 April 2020

"प्रेम की ललक : भाग 3"


प्रेम की ललक : भाग 3


श्यामदेव ने पुष्पिता के पत्र को बड़े प्यार से अपने जेब में रखा । कालेज से घर जाते वक्त रास्ते भर जेब में हाथ डालकर पत्र को मुठ्ठियों में जकड़ कर रखा, क्योंकि वह महज एक कागज का टुकड़ा नहीं था । उस कागज में पुष्पिता का प्रेम और उसके स्पर्श का एहसास था ।
घर पहुंचते ही श्यामदेव की मां ने कहा: "आज बहुत जल्दी आ गए"।
"हां मां"।
इतना कहकर अपने कमरे में चला गया।
मुस्कुराते हुए श्यामदेव ने पत्र को खोला।

प्यारे पगलू,
आदतन हर रोज की तरह आज भी ख़त लिख रही हूं। उम्मीद करूंगी कि तुम जवाब भी जल्द ही दोगे
। मैंने एक बार कह क्या दिया कि तुम्हारी लिखावट अच्छी नहीं है, इसका मतलब तुम ख़त लिखना छोड़ दोगे। लिखावट नहीं पगले ख़त में मैं तुम्हारा प्रेम पढ़ती हूं। तुम भी तो मेरे लिए इतना कुछ करते हो। तुम्हारी लिखावट ही तो गंदी है। इतना तो मैं झेल ही सकती हूं, मेरे श्याम ,मेरे कृष्ण, मेरे कान्हा ,मेरे पगले जी। हां....!! अब आगे से खत लिखना मत भूलना। दशहरे वाला दिन याद दिला दूंगी और हाँ..अबकी रूठ गई तो गई तो लाख मना लेना नहीं मानूंगी।
और मेरी कलाई इतनी जोर से मत पकड़ा करो। याद है ना पिछली बार मैं मां की चूड़ी पहनकर आई थी, वह तुम्हारे धरपकड़ में में टूट गई। लेकिन लाख चूड़ियां टूट जाएं फिर भी तुम मेरी कलाई हमेशा पकड़े रखना। प्रेम के इसी स्पर्श को तो मैं सुबह से शाम तक महसूस करती हूं। 
 अरे.....!! मैं भी ना कुछ भी लिखते जाती हूं...., बिल्कुल पागलों की तरह।
पता है आज क्या हुआ। आज मां मुझपर गुस्सा हो गईं थीं। कल जब तुम घर के बाहर सड़क पर खड़े थे, मां ने छत से देख लिया था। सुबह-सुबह ही मेरे ऊपर चिल्लाने लगी हैं। सबसे ज्यादा दु:ख तब हुआ, जब गुलशन ने भी मां के साथ मुझे बहुत कुछ बुरा-भला कहा। अब तुम ही बताओ भला अपनी बड़ी बहन को कोई ऐसे भी बोलता है क्या ? खैर, यह सब बातें छोड़ो, मैं मिलकर बताऊंगी।
तुम अपना ख्याल रखना और कालेज में मिलने वक्त पर आया करो। अगली बार से मैं इंतजार नहीं करूंगी। और अपने उन आवारा दोस्तों के साथ मत रहा करो।
जब भी वक्त मिलेगा तुम्हारे लिए परांठे बना कर लाऊंगी। बस तुम यूं ही मिलते रहना। यूँ ही प्रेम करते रहना।
तुम्हारी,
पगली।
श्यामदेव ने बड़े प्यार से ख़त को बिस्तर के नीचे सहेज कर रख दिया।


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Tuesday, 28 April 2020

कालेज BBD डिपार्टमेंट फार्मेसी



                 कालेज BBD डिपार्टमेंट फार्मेसी



           बीबीडी का जिक्र कभी और करेंगे। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही बाई तरफ गणेश भगवान के मंदिर के सामने नतमस्तक होकर सीधी चलते हैं गोलाकार चौराहे पर। इस चौराहे को कहते हैं PMC. PMC यानी "पिया मिलन चौराहा"। अब इसे PMC क्यों कहते हैं, इसका भी जिक्र कभी और करेंगे।
     
         चलते हैं PMC की दाईं तरफ वाली इमारत में। इसमें है एनआईआईटी का फार्मेसी डिपार्टमेंट। यहां के शिक्षकों का मानना है कि इस डिपार्टमेंट के छात्र कालेज के अन्य छात्रों से अलग है। अब भला होंगी भी क्यों नहीं, इस डिपार्टमेंट के छात्र रोज मास्टरों का खौफनाक चेहरा जो देखते हैं। इस डिपार्टमेंट के छात्रों को कालेज के अन्य डिपार्टमेंट के छात्रों से मिलने पर , दोस्ती करने पर, व्यहार बनाने पर सख्त मनाही है।

          यदि आप बड़े तहजीब और अदब के साथ भी टीचर्स के चैंबर में घुस गए , तो सारी शिक्षिकाएं ऐसे घूर कर देखेंगे जैसे आपने इनकी गोपनीयता भंग कर दी हो। गलती छोटी हो या बड़ी डांट आपको उतनी ही सुननी पड़ेगी जितना इनके डेटाबेस में है।

         यहाँ अनुशासन हमेशा सातवें आसमान पर रहता है। अनुशासन का अंदाजा बस इसी से लगा लीजिए कि गलियारे में चाह कर भी आप अपने सहपाठी से उसका हालचाल नहीं पूछ सकते। लेक्चर के बीच में यदि आप की कलम रुक गई तो आप निठल्ले बैठे रहिए। क्योंकि यदि प्रवक्ता ने कलम उधार लेते देख लिया तो आपके लिए यह महंगा पड़ सकता है। आप की छवि खराब हो सकती है। आपका भविष्य चौपट हो सकता है। आपका सत्यानाश हो सकता है। आपका सर्वनाश हो सकता है। आप का विनाश हो सकता है। आपके संपुर्ण अवशोषित ज्ञान का लंका दहन हो सकता है।

      समय की पाबंदी का पहाड़ा सीखना हो तो इस डिपार्टमेंट का एक बार चक्कर लगा लीजिए। पूरे कालेज में जहां एक घंटे का लंच ब्रेक मिलता है वहीं इस डिपार्टमेंट में उस एक घंटे में से पंद्रह मिनट की कटौती करके शिक्षा के गुणवत्ता को निखार जाता है। पूरा कालेज शाम पांच बजे खाली हो जाता है। लेकिन इस डिपार्टमेंट के छात्र पंद्रह मिनट बाद ज्ञान अवशोषित करके आजाद परिंदों की तरह खुली आबोहवा में गहरी सांस लेते हुए आलीशान इमारत से बाहर निकलते हैं। यदि आप कक्षा के लिए एक मिनट देर हो जाते हैं तो यहां एक अनोखी सजा मिलती है। इस जघन्य अपराध के लिए छात्र गलियारे से ही पूरी कक्षा की नुमाइश करता है। अंदर नहीं आने दिया जाता क्योंकि शिक्षकों को धौंस जमांनी है और बाहर नहीं जाने दिया जाता क्योंकि डिपार्टमेंट की छवि बनानी है।

         एक और अनोखे तथ्य से अवगत कराता हूं। वह है यहां का ड्रेस। यदि आपको किसी भी कार्य से जाना हो तो बिना ड्रेस के आपको पहचान पत्र से भी पहचानने से इंकार कर दिया जाएगा। इस डिपार्टमेंट के छात्रों को सलाह देना चाहूंगा कि कालेज से डिग्री मिलने के बाद भी ड्रेस को सहेज कर रखें। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यदि भविष्य में आप अपने बच्चों को अपना कालेज दिखाने लाते हैं तो ड्रेस पहन कर आना जरूरी है। अपने ड्रेस के साथ आएंगे तभी आवेदन शुल्क के साथ आपके भ्रमण आवेदन पत्र पर कार्यालय की मुहर लगेगी।

        तो चलिए आप भी कालेज BBD डिपार्टमेंट फार्मेसी को लखनवी अंदाज नवाबी तहज़ीब में सलाम किजिए ।

🖋🖋🖋 अभिषेक तिवारी तन्हा

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