इस लेख को लिखा है कवित्री संगीता सिंह जी ने ।
कैसा लगता है जब दुनियाँ वाले बिना किसी का सच जाने उसके प्रति अपनी राय बना लेते हैं। उसके हिस्से की तकलीफ सुने बिना उसे दोषी करार दे देते हैं।
हाँ....! समाज में रहना है, इसलिए उसके सामने तो कुछ नहीं कहते । लेकिन इसी समाज का हिस्सा है, इसलिए किसी के प्रति कोई धारणा बना लेना गलत भी नहीं समझते।
एक स्त्री की तकलीफ़ें तो कुछ कह देने भर से शायद दूर भी हो जाएं । पर एक पुरुष जो कि एक सामान्य जिंदगी की चाहत रखता हो ,जो चाहता हो कि उसके किसी असमान्य कार्य से किसी की जिंदगी प्रभावित ना हो उसके भीतर कितनी कुंठा भरी हो सकती है । और किस कदर वो खुद को बेबस और लाचार समझ बैठता है इसका अंदाजा शायद ही कोई लगा सकता है....।
🖋🖋 Sangeeta Singh
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